तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं
अक़्ल की हद से मगर आगे गुमाँ होते हैं
छोड़ जाते हैं कहीं पास तिरे अपना वजूद
घर पहुँच कर भी तो हम घर में कहाँ होते हैं
ख़्वाब ओ उम्मीद, गुमाँ, उस का तसव्वुर, चाहत
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त में ये राहत-ए-जाँ होते हैं
किस तरह अर्ज़-गुज़ारी से उन्हें रोका है
ऐसे जज़्बे कि जो छुपते न अयाँ होते हैं
इश्क़ में तर्ज़-ए-तकल्लुम की रिवायत है अजब
कलमा-ए-ख़ास निगाहों से बयाँ होते हैं
ख़्वाब जब जब हुए ज़ख़्मी तो हुए शेर नए
वर्ना ये मोजज़े हर रोज़ कहाँ होते हैं
सिर्फ़ पिंदार-ए-ख़िरद ही तो नहीं शग़्ल-ए-हयात
मातम-ए-इल्म-ओ-अमल भी तो यहाँ होते हैं
सख़्ती-ए-हश्र से होंगे न किसी तौर भी कम
उन के हम-राह वो लम्हे जो गिराँ होते हैं
आतिश-ए-दिल है या फिर सोज़िश-ए-जाँ है, क्या है?
एक इक कर के सभी ख़्वाब धुआँ होते हैं
नस्ल-ए-नौ के हैं नए शुग़्ल, नई ही तहज़ीब
बज़्म-ए-इमरोज़ में अज़़कार-ए-बुताँ होते हैं
अक्सर औक़ात तबाही का सबब हूँ, लेकिन
कुछ हवादिस भी मगर वज्ह-ए-अमाँ होते हैं
उम्र भर खुल नहीं पाते हैं रुमूज़-ओ-असरार
लोग कुछ सामने रह कर भी निहाँ होते हैं
बारहा टूट के भी, हैं कहीं मौजूद अभी
वलवले वो जो तिरे साथ जवाँ होते हैं
हम को तो मिल न सके, तुम को मिले होंगे कहीं
वो जो हर हाल में पाबंद-ए-ज़बाँ होते हैं
क्या कहा उस ने, ये क्या कह के पुकारा 'ख़ालिद'
ऐसे कुछ जुमले अदा वक़्त-ए-अज़ाँ होते हैं

ग़ज़ल
तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं
क़ैसर ख़ालिद