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तसव्वुर कार-फ़रमा था कि लज़्ज़त थी कहानी की | शाही शायरी
tasawwur kar-farma tha ki lazzat thi kahani ki

ग़ज़ल

तसव्वुर कार-फ़रमा था कि लज़्ज़त थी कहानी की

निज़ामुद्दीन निज़ाम

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तसव्वुर कार-फ़रमा था कि लज़्ज़त थी कहानी की
इसी तस्वीर ने आँखों पे जैसे हुक्मरानी की

मिरी परवाज़ का मंज़र अभी तीरों से छलनी है
लहू में तर-ब-तर है दास्ताँ नक़्ल-ए-मकानी की

लबों पर बर्फ़ जम जाए तो इस्तिफ़्सार क्या मा'नी
कि शोर-ओ-ग़ुल फ़क़त तम्हीद है शोला-बयानी की

क़दम रखते ही जैसे खुल गया दलदल में दरवाज़ा
अजब कारीगरी देखी यहाँ मिट्टी में पानी की

दिखाई राह साहिल की उन्हें पुर-पेच मौजों ने
उसी तूफ़ान ने कश्ती के हक़ में बादबानी की

बहुत ज़रख़ेज़ मिट्टी है 'निज़ाम' अपने बदन में भी
हवस ने फूल महकाए लहू ने बाग़बानी की