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तरीक़ कोई न आया मुझे ज़माने का | शाही शायरी
tariq koi na aaya mujhe zamane ka

ग़ज़ल

तरीक़ कोई न आया मुझे ज़माने का

तनवीर अंजुम

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तरीक़ कोई न आया मुझे ज़माने का
कि एक सौदा रहा जिंस-ए-दिल लुटाने का

फ़रेब-ए-ख़्वाब मिरे रास्ते को रोक नहीं
कि वक़्त-ए-शाम है ये ग़म-कदे को जाने का

तिरे वजूद से पहचान मुझ को अपनी थी
तिरा यक़ीन था मुझ को यक़ीं ज़माने का

ख़राब-ए-इश्क़ हूँ ख़ुद मौत हूँ मैं अपने लिए
सिखा रही हूँ हुनर ख़ुद को दिल जलाने का

हर एक शाख़-ए-सितम से मैं फूल तोड़ती हूँ
हुआ है शौक़ चमन-ज़ार-ए-ग़म बनाने का

नशा अजीब है इस जंग-ए-बे-समर का मुझे
ख़ुमार ख़ूब है ख़ून-ए-ख़िरद बहाने का

शब-ए-विसाल में इक नुक़्ता-ए-तवक्कुफ़ हूँ
और इक जुनूँ है उसे मंज़िलों को पाने का

दिल-ए-तबाह को बे-दाम बेच देती हूँ
कि कारोबार है ये जिंस-ए-ग़म कमाने का

मुझे अज़ीज़ है बे-एहतियाती-ए-सादा
न शौक़ है न हुनर उस को आज़माने का

क़फ़स बदन का मुझे कुछ मिरा सुबूत नहीं
ये ताइर-ए-दिल-ओ-जाँ लौट कर न आने का