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तन्हाइयों के दर्द से रिसता हुआ लहू | शाही शायरी
tanhaiyon ke dard se rista hua lahu

ग़ज़ल

तन्हाइयों के दर्द से रिसता हुआ लहू

रशीद अफ़रोज़

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तन्हाइयों के दर्द से रिसता हुआ लहू
दीवार-ओ-दर उदास हैं हर शय है ज़र्द-रू

ख़ामोशियों में डूब गई ज़िंदगी की शाम
आवाज़ दे के जाने कहाँ छुप गया है तू

आँखों में जागती ही रही नींद रात भर
चलती रही ख़याल के सहरा में गर्म लू

साहिल पे डूबने लगी आब-ए-रवाँ की लौ
बरपा था ज़र्द रेत का तूफ़ान चार-सू

वादी में नीलगूँ सा धुआँ रेंगने लगा
घबरा के दम न तोड़ दे झीलों में जुस्तुजू

मुद्दत के बा'द लौट के आया जब अपने घर
इक अक्स आइने में ये कहने लगा कि तू