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तमाशा अहल-ए-मोहब्बत ये चार-सू करते | शाही शायरी
tamasha ahl-e-mohabbat ye chaar-su karte

ग़ज़ल

तमाशा अहल-ए-मोहब्बत ये चार-सू करते

हाशिम रज़ा जलालपुरी

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तमाशा अहल-ए-मोहब्बत ये चार-सू करते
दिल-ओ-दिमाग़ और आँखें लहू लहू करते

वो रौशनी से भरी झील के किनारे पर
शिकस्ता-रूह, दरीदा-बदन रफ़ू करते

हमारे बारे में तफ़तीश करना चाहते थे
तो जान-ए-जान परिंदों से गुफ़्तुगू करते

जमाल-ओ-हुस्न से लबरेज़ जब ज़माना है
तिरी बिसात ही क्या तेरी आरज़ू करते

ज़मीं पे चाँद सितारे बिछा के ऐ 'हाशिम'
फ़लक पे फूल सजाने की आरज़ू करते