तमाम उम्र मयस्सर बस एक ख़ाना हवा
मैं अपनी ज़ात के संदूक़ में पुराना हुआ
महाज़-ए-वक़्त से अगले पड़ाव की जानिब
मैं रुक गया तो कोई दूसरा रवाना हुआ
नज़र उठा के फलों की तरफ़ नहीं देखा
शजर से टेक लगाए हुए ज़माना हुआ
ये काएनात भी क़द की मुनासिबत से थी
कि इक परिंद को पता भी शामियाना हुआ
'नसीम' इस से बड़ा रंज और क्या होगा
वो मुझ से पूछ रहा है कि कैसे आना हुआ

ग़ज़ल
तमाम उम्र मयस्सर बस एक ख़ाना हवा
नसीम अब्बासी