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तमाम-दुनिया का लख़्त-ए-जिगर बना हुआ था | शाही शायरी
tamam-duniya ka laKHt-e-jigar bana hua tha

ग़ज़ल

तमाम-दुनिया का लख़्त-ए-जिगर बना हुआ था

फ़ैज़ ख़लीलाबादी

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तमाम-दुनिया का लख़्त-ए-जिगर बना हुआ था
वो आदमी जो मिरा दर्द-ए-सर बना हुआ था

उसे तलाश रही हैं मिरी उदास आँखें
जो ख़्वाब रात के पिछले पहर बना हुआ था

पहुँच के कूचा-ए-जानाँ में आ गया बाहर
मिरे वजूद के अंदर जो डर बना हुआ था

कमाल-ए-इश्क़ ने मेरे किया है ज़ेर उसे
किसी का हुस्न जो कल तक ज़बर बना हुआ था

उतरती कैसे सुकूँ की वहाँ कोई चिड़िया
महल जो हिर्स की बुनियाद पर बना हुआ था

बना दिया उसे इंसान तेरी क़ुर्बत ने
तिरे फ़िराक़ में जो जानवर बना हुआ था

ये उस का शौक़ नहीं उस की इंकिसारी थी
वसीअ' हो के भी जो मुख़्तसर बना हुआ था

पहुँच गया है जवानी से अब बुढ़ापे तक
वो एक दुख जो शरीक-ए-सफ़र बना हुआ था

हवस के चाक की मिट्टी जवान थी जब तक
तमाम-शहर यहाँ कूज़ा-गर बना हुआ था

वो जानता था मिरे अन-कहे दुखों का इलाज
मगर वो 'फ़ैज़'-मियाँ बे-ख़बर बना हुआ था