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तब्सिरा यूँ न मिरे हाल पे इतना होता | शाही शायरी
tabsira yun na mere haal pe itna hota

ग़ज़ल

तब्सिरा यूँ न मिरे हाल पे इतना होता

शबनम नक़वी

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तब्सिरा यूँ न मिरे हाल पे इतना होता
उस को नज़दीक से दुनिया ने जो देखा होता

कोई मरते हुए लम्हों का मसीहा होता
कर्ब तन्हाई का एहसास न इतना होता

ये जो आहट की तरह साथ मिरे रहता है
बन के तस्वीर कभी सामने आया होता

दे गया जो मुझे तपते हुए लम्हों का गुदाज़
काश वो दर्द मिरे वास्ते तन्हा होता

मैं कि जैसा हूँ ब-हर-हाल नज़र में आता
मुझ को एहसास की नज़रों से तो देखा होता

ऐसा लगता है दोबारा न मिलेगा मुझ से
इस तरह टूट के वो याद न आया होता

क्या मिला जाग के बतलाईए 'शबनम'-साहब
इस से अच्छा था कोई ख़्वाब ही देखा होता