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तब के क्या हासिल-ए-वफ़ा होगा | शाही शायरी
tab ke kya hasil-e-wafa hoga

ग़ज़ल

तब के क्या हासिल-ए-वफ़ा होगा

संदीप कोल नादिम

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तब के क्या हासिल-ए-वफ़ा होगा
इश्क़ जब तालिब-ए-सज़ा होगा

मैं ही शायद न सुन सका यारब
उस ने कुछ तो मुझे कहा होगा

ख़ुद-परस्ती हो जिस की फ़ितरत में
वो तो बे-शर्म बे-हया होगा

फिर मोहब्बत न करना चाहोगे
मेरा फ़साना गर सुना होगा

ग़म मिरे साथ था हमेशा से
अब के वो भी ज़रा ख़फ़ा होगा

ख़्वाहिशें और बढ़ती जाएँगी
क्या यही हासिल-ए-दुआ होगा

किस कि आहट सुनाई देती है
ज़ख़्म शायद कोई नया होगा

थी उसी दम पे थोड़ी रानाई
अब ख़याल उस का भी गया होगा

कैसा हर सम्त ये अँधेरा है
चाँद शायद बुझा बुझा होगा

क्या कहा ज़ुल्म उस की फ़ितरत है
उस को जाने दे वो ख़ुदा होगा

आँधियों को भी कर रहा रौशन
कैसा वो सर-फिरा दिया होगा

मौत जिस को लगे है दुश्मन सी
हर घड़ी डर के वो जिया होगा

मौत का ख़ौफ़ वो नहीं रखता
एक लम्हा भी जो जिया होगा

अपनी हस्ती मिटा सकूँ 'नादिम'
इस से बढ़ कर जुनून क्या होगा