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तअल्लुक़ उस से अगरचे मिरा ख़राब रहा | शाही शायरी
talluq us se agarche mera KHarab raha

ग़ज़ल

तअल्लुक़ उस से अगरचे मिरा ख़राब रहा

यशब तमन्ना

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तअल्लुक़ उस से अगरचे मिरा ख़राब रहा
क़सम सफ़र की वही एक हम-रिकाब रहा

समझ सका न उसे मैं क़ुसूर मेरा है
कि मेरे सामने तो वो खुली किताब रहा

मैं एक लफ़्ज़ भी लेकिन न पढ़ सका उस को
अगरचे वो भी मिरा शामिल-ए-निसाब रहा

मैं मअरिफ़त के हूँ अब उस मक़ाम पर कि जहाँ
किया गुनाह भी तो ख़दशा-ए-सवाब रहा

हक़ीक़तों से मफ़र चाही थी 'यशब' मैं ने
पर अस्ल अस्ल रहा और ख़्वाब ख़्वाब रहा