तालिब ख़ुदा से अद्ल के ख़्वाहाँ करम के हैं
मज़लूम हम बुतों के जफ़ा-ओ-सितम के हैं
उम्मीदवार-ए-जाह न तालिब हशम के हैं
हम बादशाह किशवर-ए-इश्क़-ए-सनम के हैं
दुनिया सरा है हम हैं मुसाफ़िर ठहर गए
मुल्क-ए-बक़ा से आए हैं आज़िम अदम के हैं
दिल भी जिगर भी जान भी सीना भी इश्क़ में
ये सब मकान सदमा-ओ-दर्द-ओ-अलम के हैं
तालिब हैं गंज-ए-वस्ल के इक सम्त में से ये
'अहक़र' तो आज फेर में गहरी रक़म के हैं

ग़ज़ल
तालिब ख़ुदा से अद्ल के ख़्वाहाँ करम के हैं
राधे शियाम रस्तोगी अहक़र