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सूरज सा भी तारा हो ज़मीं सी भी ज़मीं हो | शाही शायरी
suraj sa bhi tara ho zamin si bhi zamin ho

ग़ज़ल

सूरज सा भी तारा हो ज़मीं सी भी ज़मीं हो

हामिद सलीम

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सूरज सा भी तारा हो ज़मीं सी भी ज़मीं हो
मुमकिन है फ़लक पर कोई तुम सा भी हसीं हो

तरदीद-ए-जहालत की सज़ा मौत है चुप हूँ
अब कौन यहाँ खोल के लब मुंकिर-ए-दीं हो

इस बात से काफ़िर को भी इंकार नहीं है
वो शख़्स पयम्बर है जो सादिक़ हो अमीं हो

सुनता हूँ कई दैर ओ कलीसा के फ़साने
ऐ काश किसी बात का मुझ को भी यक़ीं हो

उड़ता फिरूँ गर चर्ख़ पे हर रंज से आज़ाद
यारब यही आलम मुझे फ़िरदौस-ए-बरीं हो

बे-वजह भी देखा है परेशाँ तुम्हें 'हामिद'
दीवाने भी लगते नहीं आशिक़ भी नहीं हो