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सूरज को क्या पता है किधर धूप चाहिए | शाही शायरी
suraj ko kya pata hai kidhar dhup chahiye

ग़ज़ल

सूरज को क्या पता है किधर धूप चाहिए

ग़यास मतीन

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सूरज को क्या पता है किधर धूप चाहिए
आँगन बड़ा है अपने भी घर धूप चाहिए

आईने टूट टूट के बिखरे हैं चार-सू
ढूँडेंगे अक्स अक्स मगर धूप चाहिए

भीगे हुए परों से तो उड़ने न पाएँगे
काटूँ न उन परिंदों के पर धूप चाहिए

हम से दरीदा-पैरहन-ओ-जाँ के वास्ते
याक़ूत चाहिए न गुहर धूप चाहिए

सूरज न जाने कौन सी वादी में छुप गया
और चीख़ती फिरे है सहर धूप चाहिए

इक नींद है कि आँख से लग कर निकल गई
अब रात का तवील सफ़र धूप चाहिए

पानी पे चाहे नक़्श बनाए कोई 'मतीन'
काग़ज़ पे मैं बनाऊँ मगर धूप चाहिए