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सूरज धीरे धीरे पिघला फिर तारों में ढलने लगा | शाही शायरी
suraj dhire dhire pighla phir taron mein Dhalne laga

ग़ज़ल

सूरज धीरे धीरे पिघला फिर तारों में ढलने लगा

शमीम हनफ़ी

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सूरज धीरे धीरे पिघला फिर तारों में ढलने लगा
मेरे अंदर का सन्नाटा जाग के आँखें मलने लगा

शाम ने बर्फ़ पहन रक्खी थी रौशनियाँ भी ठंडी थीं
मैं इस ठंडक से घबरा कर अपनी आग में जलने लगा

सारा मौसम बदल चुका था फूल भी थे और आग भी थी
रात ने जब ये स्वाँग रचाया चाँद भी रूप बदलने लगा

आवाज़ों के अंग अंग में दर्द के नश्तर चुभने लगे
प्यासी आँखों के सहरा में रेत का झक्कड़ चलने लगा

नीले सुर्ख़ सफ़ेद सुनहरे एक एक करके डूब गए
सम्तों की हर पगडंडी पर काला रंग पिघलने लगा