सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता
हुआ वो बज़्म-ए-मय में बे-हिजाब आहिस्ता आहिस्ता
रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कि जैसे हो तुलू-ए-आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
किया जब शौक़ ने उस से ख़िताब आहिस्ता आहिस्ता
हया ने भी दिया आख़िर जवाब आहिस्ता आहिस्ता
वो मस्ती-ख़ेज़ नज़रें रफ़्ता रफ़्ता ले उड़ीं मुझ को
किया काशाना-ए-दिल को ख़राब आहिस्ता आहिस्ता
बढ़ा हंगामा-ए-शौक़ इस क़दर बज़्म-ए-हरीफ़ाँ में
कि रुख़्सत हो गया उस का हिजाब आहिस्ता आहिस्ता
किया कामिल हमें इक उम्र में सोज़-ए-मोहब्बत ने
हुए हम आतिश-ए-ग़म से कबाब आहिस्ता आहिस्ता
अबस था ज़ब्त का दावा सितम उस के सितम निकले
निगाहें हो गईं आख़िर पुर-आब आहिस्ता आहिस्ता
दबिस्तान-ए-वफ़ा में उम्र भर की सफ़्हा-गर्दानी
समझ में आई उल्फ़त की किताब आहिस्ता आहिस्ता
ब-क़द्र-ए-शौक़ उसे ताब-ए-तपीदन थी कहाँ क़ातिल
किया बिस्मिल ने तेरे इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता
बला हैं शाहिदान-ए-शहर 'वहशत' मय-परस्ती में
हुआ मैं उन की सोहबत में ख़राब आहिस्ता आहिस्ता
ग़ज़ल
सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता
वहशत रज़ा अली कलकत्वी