सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से
लहू उतरा है तिरी आँखों में ख़ूँ-ख़्वारी से
वक़्त रुख़्सत के तिरे ऐ मिरे जी के दुश्मन
थाम थाम आज रखा दिल को मैं किस ख़्वारी से
बस मैं आया जो तुम्हारे उसे चाहो सो करो
क्या सितम आदमी सहता नहीं लाचारी से
किस ने नज़रों में ख़ुदा जाने उसे मल डाला
नर्गिस आज आँख उठाती नहीं बीमारी से
क्या कहूँ वल्वला-ए-शौक़ को तेरे मैं 'अमीर'
घर में जाते हैं पराए तो ख़बरदारी से
ग़ज़ल
सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से
नवाब मोहम्मद यार ख़ाँ अमीर