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सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से | शाही शायरी
surKH chashm itni kahin hoti hai bedari se

ग़ज़ल

सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से

नवाब मोहम्मद यार ख़ाँ अमीर

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सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से
लहू उतरा है तिरी आँखों में ख़ूँ-ख़्वारी से

वक़्त रुख़्सत के तिरे ऐ मिरे जी के दुश्मन
थाम थाम आज रखा दिल को मैं किस ख़्वारी से

बस मैं आया जो तुम्हारे उसे चाहो सो करो
क्या सितम आदमी सहता नहीं लाचारी से

किस ने नज़रों में ख़ुदा जाने उसे मल डाला
नर्गिस आज आँख उठाती नहीं बीमारी से

क्या कहूँ वल्वला-ए-शौक़ को तेरे मैं 'अमीर'
घर में जाते हैं पराए तो ख़बरदारी से