सुना है ज़ख़्मी-ए-तेग़-ए-निगह का दम निकलता है
तिरा अरमान ले ऐ क़ातिल-ए-आलम निकलता है
न आँखों में मुरव्वत है न जा-ए-रहम है दिल में
जहाँ में बेवफ़ा माशूक़ तुम सा कम निकलता है
कहा आशिक़ से वाक़िफ़ हो तो फ़रमाया नहीं वाक़िफ़
मगर हाँ इस तरफ़ से एक ना-महरम निकलता है
मोहब्बत उठ गई सारे ज़माने से मगर अब तक
हमारे दोस्तों में बा-वफ़ा इक ग़म निकलता है
पता क़ासिद ये रखना याद उस क़ातिल के कूचे से
कोई नालाँ कोई बिस्मिल कोई बे-दम निकलता है
ग़ज़ल
सुना है ज़ख़्मी-ए-तेग़-ए-निगह का दम निकलता है
हैरत इलाहाबादी