सुना है इस तरफ़ का रुख़ करेंगे
तिरे दुश्मन मिरी जानिब बढ़ेंगे
किसी से कुछ न पूछा कुछ न जाना
ये धब्बे ख़ून के कैसे धुलेंगे
बहुत हैं चार दिन ये ज़िंदगी के
कभी रन में कभी घर में रहेंगे
मसीहाओं को अब ज़हमत न होगी
हम उन के आते आते मर चुकेंगे
कहाँ जाते हैं घबराए हुए लोग
कि सहरा में तो दीवाने रहेंगे
अभी मरने की जल्दी है 'इबादी'
अगर ज़िंदा रहे तो फिर मिलेंगे
ग़ज़ल
सुना है इस तरफ़ का रुख़ करेंगे
ख़ालिद इबादी