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सुना भी कभी माजरा दर्द-ओ-ग़म का किसी दिल-जले की ज़बानी कहो तो | शाही शायरी
suna bhi kabhi majra dard-o-gham ka kisi dil-jale ki zabani kaho to

ग़ज़ल

सुना भी कभी माजरा दर्द-ओ-ग़म का किसी दिल-जले की ज़बानी कहो तो

साइल देहलवी

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सुना भी कभी माजरा दर्द-ओ-ग़म का किसी दिल-जले की ज़बानी कहो तो
निकल आएँ आँसू कलेजा पकड़ लो करूँ अर्ज़ अपनी कहानी कहो तो

तुम्हें रंग-ए-मय शैख़ मर्ग़ूब क्या है गुलाबी हो या ज़ा'फ़रानी कहो तो
पिलाए कोई साक़ी-ए-हूर-पैकर मुसफ़्फ़ा कशीदा पुरानी कहो तो

तमन्ना-ए-दीदार है हसरत-ए-दिल कि तुम जल्वा-फ़रमा हो मैं आँखें सेकूँ
न कह देना मूसा से जैसे कहा था मिरी अर्ज़ पर लन-तरानी कहो तो

वफ़ा-पेशा आशिक़ नहीं देखा तुम ने मुझे देख लो जाँच लो आज़मा लो
तुम्हारे इशारे पे क़ुर्बान कर दूँ अभी माया-ए-ज़िंदगानी कहो तो

कहाँ मैं कहाँ दास्ताँ का तक़ाज़ा मिरे ज़ब्त-ए-दर्द-ए-निहाँ का है कहना
फिर उस पर ये ताकीद भी है बराबर न कहना पुरानी कहानी कहो तो

मिरे नामा-ए-शौक़ की सत्र में है जगह इक जो सादा वो मोहमल नहीं है
मैं हो जाऊँ ख़िदमत में हाज़िर अभी ख़ुद बताने को इस के मआ'नी कहो तो