सुल्ह-ओ-पैकार भी हो और रिफ़ाक़त भी रहे
ख़ूँ में अज्दाद की थोड़ी सी शराफ़त भी रहे
ज़ेहन-ए-ख़्वाबीदा को मसरूफ़-ए-अमल रखना है
क्या ज़रूरी कि इशारों में सराहत भी रहे
ये तो मुमकिन है फ़क़त गोशा-ए-तन्हाई में
शोर-ए-बाज़ार न हो और क़यामत भी रहे
रौशनी के लिए दरकार है बे-ताबी-ए-ख़ाक
चाँद लेकिन हुनर-ए-शब से इबारत भी रहे
सुनते आए हैं मोहब्बत है इबादत ऐ दोस्त
कभी हँस-बोल के बैठो तो इबादत भी रहे
शाइ'री नग़्मागरी साअ'त-ए-हैरानी में
ताज़ा-कारी हो मगर पास-ए-रिवायत भी रहे
ग़ज़ल
सुल्ह-ओ-पैकार भी हो और रिफ़ाक़त भी रहे
सय्यद अमीन अशरफ़