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सुलैमान-ए-सुख़न तो ख़ैर क्या हूँ | शाही शायरी
sulaiman-e-suKHan to KHair kya hun

ग़ज़ल

सुलैमान-ए-सुख़न तो ख़ैर क्या हूँ

अनवर शऊर

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सुलैमान-ए-सुख़न तो ख़ैर क्या हूँ
यके अज़ शहर-ए-यारान-ए-सबा हूँ

वो जब कहते हैं फ़र्दा है ख़ुश-आइंद
अजब हसरत से मुड़ कर देखता हूँ

फ़िराक़ ऐ माँ कि मैं ज़ीना-ब-ज़ीना
कली हूँ गुल हूँ ख़ुश्बू हूँ सबा हूँ

सहर और दोपहर और शाम और शब
मैं इन लफ़्ज़ों के मा'नी सोचता हूँ

कहाँ तक काहिली के ता'न सुनता
थकन से चूर हो कर गिर पड़ा हूँ

तरक़्क़ी पर मुबारकबाद मत दो
रफ़ीक़ो में अकेला रह गया हूँ

कभी रोता था उस को याद कर के
अब अक्सर बे-सबब रोने लगा हूँ

सुने वो और फिर कर ले यक़ीं भी
बड़ी तरकीब से सच बोलता हूँ