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सुलगती रुत थी प कब तू भी पास ऐसा था | शाही शायरी
sulagti rut thi pa kab tu bhi pas aisa tha

ग़ज़ल

सुलगती रुत थी प कब तू भी पास ऐसा था

ख़ान मोहम्मद ख़लील

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सुलगती रुत थी प कब तू भी पास ऐसा था
कि तेरे क़ुर्ब का मंज़र भी प्यास ऐसा था

बिछड़ के तुझ से तो ख़ुद से भी शर्म आती है
तिरा वजूद-ए-बदन पर लिबास ऐसा था

ख़ुद अपने दिल की सदा तेरी दस्तकों सी लगी
गुमाँ में था तेरा आना क़यास ऐसा था

शिकस्त-ओ-रेख़्त की सख़्ती को कैसे झेल गया
मुलाएमत में जो पैकर कपास ऐसा था

जहाँ कहीं भी गया हूँ तो घर को लौट आया
उदासियों का ये माहौल रास ऐसा था

फ़सील-ए-शहर गिरी और ग़नीम के डर से
कोई न चैन से सोया हिरास ऐसा था

पढ़ें तो ख़ुद को ज़मीं-बोस पाएँ कज-दस्तार
मिरी किताब में इक इक़्तिबास ऐसा था