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सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना | शाही शायरी
sulagna andar andar misra-e-tar sochte rahna

ग़ज़ल

सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

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सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
बदन पर डाल कर ज़ख़्मों की चादर सोचते रहना

नहीं कम जाँ-गुसिल ये मरहला भी ख़ुद-शनासी का
कि अपने ही मआनी लफ़्ज़ बन कर सोचते रहना

ज़बाँ से कुछ न कहना बावजूद-ए-ताब-ए-गोयाई
खुली आँखों से बस मंज़र ब मंज़र सोचते रहना

किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो
मसाइल कम नहीं फिर ज़िंदगी भर सोचते रहना

चराग़-ए-ज़िंदगी है या बिसात-ए-आतिश-ए-रफ़्ता
जला कर रौशनी दहलीज़-ए-जाँ पर सोचते रहना

अजब शय है 'फ़ज़ा' ज़ेहन ओ नज़र की ये असीरी भी
मुसलसल देखते रहना बराबर सोचते रहना