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सुकूत-ए-मर्ग में क्यूँ राह-ए-नग़्मा-गर देखूँ | शाही शायरी
sukut-e-marg mein kyun rah-e-naghma-gar dekhun

ग़ज़ल

सुकूत-ए-मर्ग में क्यूँ राह-ए-नग़्मा-गर देखूँ

सादिक़ नसीम

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सुकूत-ए-मर्ग में क्यूँ राह-ए-नग़्मा-गर देखूँ
मैं ख़ुद ही साज़ की मानिंद टूट कर देखूँ

मिरे दयार तिरे शहर हैं कि सहरा हैं
मैं एक तरह का मंज़र नगर नगर देखूँ

वही हों आरिज़-ओ-अब्रू-ओ-चश्म-ओ-लब फिर भी
हर एक चेहरे पे इक चेहरा-ए-दिगर देखूँ

ज़िया-ए-नज्म-ओ-मह-ओ-मेहर-ओ-कहकशाँ से अलग
अजीब रौशनियाँ तुझ को देख कर देखूँ

मिरी कमी तुझे महसूस हो रही थी जहाँ
वहीं पहुँच के तिरी राह उम्र भर देखूँ

गुबार-ए-राह-नुमाई से अट गई है फ़ज़ा
तरस गया हूँ कि राहों को इक नज़र देखूँ

तिरी शही की हवस में है मेरी जाँ का ज़ियाँ
मैं तेरे ताज को देखूँ कि अपना सर देखूँ

न पूछ हर्फ़-ए-तमन्ना की वुसअ'तें 'सादिक़'
चले जो बात तो सदियाँ भी मुख़्तसर देखूँ