सुकूँ न था मगर इतना भी इंतिशार न था
हमारे चारों तरफ़ ख़ौफ़ का हिसार न था
तमाम उम्र ख़िज़ाँ में झुलसते गुज़री है
हमारे सर पे कभी साया-ए-बहार न था
रहा हमेशा किसी और के तसर्रुफ़ में
ख़ुद अपने दिल पे कभी अपना इख़्तियार न था
हर एक हाथ उठाए हुए था यूँ पत्थर
कि जैसे शहर में कोई गुनाहगार न था
अमीर-ए-शहर के चेहरे के दाग़-धब्बे थे
फ़सील-ए-शहर पे चस्पाँ वो इश्तिहार न था
हज़ार दफ़्तर-ए-मअ'नी खँगाल डाले 'नाज़'
मगर कहीं भी कोई हर्फ़-ए-ए'तिबार न था
ग़ज़ल
सुकूँ न था मगर इतना भी इंतिशार न था
नाज़ क़ादरी