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सुकून-ए-दिल तो कहाँ राहत-ए-नज़र भी नहीं | शाही शायरी
sukun-e-dil to kahan rahat-e-nazar bhi nahin

ग़ज़ल

सुकून-ए-दिल तो कहाँ राहत-ए-नज़र भी नहीं

क़तील शिफ़ाई

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सुकून-ए-दिल तो कहाँ राहत-ए-नज़र भी नहीं
ये कैसी बज़्म है जिस में तिरा गुज़र भी नहीं

भटक रहा है ज़माना घने अँधेरे में
वो रात है जिसे अंदेशा-ए-सहर भी नहीं

न जाने कौन सी मंज़िल को ले चले हम को
वो हम-सफ़र जो हक़ीक़त में हम-सफ़र भी नहीं

तिरी निगाह का दिल को यक़ीं सा है वर्ना
सुनी है बात कुछ ऐसी कि मो'तबर भी नहीं