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सुख़न-वरी हमें कब तजरिबे से आई है | शाही शायरी
suKHan-wari hamein kab tajribe se aai hai

ग़ज़ल

सुख़न-वरी हमें कब तजरिबे से आई है

मुज़फ़्फ़र वारसी

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सुख़न-वरी हमें कब तजरिबे से आई है
ज़बाँ में चाशनी दिल टूटने से आई है

जिधर से मेरा बदन धूप चाट कर गुज़रा
हवा-ए-सर्द उसी रास्ते से आई है

तड़पता मैं हूँ पसीना है उस के माथे पर
शिकस्त-ए-दिल की सदा आइने से आई है

खुला सुबूत है ये दुश्मनों के शब-ख़ूँ का
कि धूल ठहरे हुए क़ाफ़िले से आई है

सफ़र में साथ मिरा और कोई क्या देता
हवा भी मेरी तरफ़ सामने से आई है

सहर ने मुझ को 'मुज़फ़्फ़र' नहीं किया सैक़ल
मिरी नज़र में चमक रतजगे से आई है