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सुब्ह तक जिन से बहुत बेज़ार हो जाता हूँ मैं | शाही शायरी
subh tak jin se bahut bezar ho jata hun main

ग़ज़ल

सुब्ह तक जिन से बहुत बेज़ार हो जाता हूँ मैं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

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सुब्ह तक जिन से बहुत बेज़ार हो जाता हूँ मैं
रात होते ही उन्ही गलियों में खो जाता हूँ मैं

ख़्वाब में गुम हूँ कि बाहर की फ़ज़ा अच्छी नहीं
आँख खुलते ही कहीं ज़ंजीर हो जाता हूँ मैं

खींच लाती है उसी कूचे में फिर आवारगी
रोज़ जिस कूचे से अपने शहर को जाता हूँ मैं

इस अँधेरे में चराग़-ए-ख़्वाब की ख़्वाहिश नहीं
ये भी क्या कम है कि थोड़ी देर सो जाता हूँ मैं

रात लाती है किसी के क़ुर्ब की ख़्वाहिश मगर
सुब्ह होते ही किसी से दूर हो जाता हूँ मैं

जी में आता है कि दुनिया को बदलना चाहिए
और अपने आप से मायूस हो जाता हूँ मैं

बारे बाग़-ए-सेहन-ए-दुनिया में बहुत दिन रह लिया
ख़ुश रहो अब इस गली से दोस्तो जाता हूँ मैं