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सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से | शाही शायरी
subh ka afsana kah kar sham se

ग़ज़ल

सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से

शकील बदायुनी

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सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से
खेलता हूँ गर्दिश-ए-अय्याम से

उन की याद उन की तमन्ना उन का ग़म
कट रही है ज़िंदगी आराम से

इश्क़ में आएँगी वो भी साअ'तें
काम निकलेगा दिल-ए-नाकाम से

लाख मैं दीवाना-ए-रुस्वा सही
फिर भी इक निस्बत है तेरे नाम से

सुब्ह-ए-गुलशन देखिए क्या गुल खिलाए
कुछ हवा बदली हुई है शाम से

हाए मेरा मातम-ए-तिश्ना-लबी
शीशा मिल कर रो रहा है जाम से

बे-ख़ुदी पर शायद उस का बस नहीं
जोश आ जाता है उन के नाम से

हर-नफ़स महसूस होता है 'शकील'
आ रहे हैं नामा-ओ-पैग़ाम से