सोचते रहना यही ग़म-ख़्वार से हो कर अलग
कोई तन्हा रह गया 'अंसार' से हो कर अलग
कातिब-ए-तक़दीर ने लिखना था जो वो लिख दिया
अब कहाँ जाऊँ सलीब-ओ-दार से हो कर अलग
एक लम्हे में उतर जाएगा बरसों का ख़ुमार
क्या करोगे अपने ही किरदार से हो कर अलग
सोच में डूबा हुआ हूँ मैं इमारत के क़रीब
गिर पड़ी क्यूँ छत दर-ओ-दीवार से हो कर अलग
यूँ ब-ज़ाहिर कर रहा है वो तअल्लुक़ से गुरेज़
जी नहीं सकता मगर 'अंसार' से हो कर अलग

ग़ज़ल
सोचते रहना यही ग़म-ख़्वार से हो कर अलग
क़ाज़ी अनसार