सोचने का भी नहीं वक़्त मयस्सर मुझ को
इक कशिश है जो लिए फिरती है दर दर मुझ को
अपना तूफ़ाँ न दिखाए वो समुंदर मुझ को
चार क़तरे न हुए जिस से मयस्सर मुझ को
उम्र भर दैर-ओ-हरम ने दिए चक्कर मुझ को
बे-कसी का हो बुरा ले गई घर घर मुझ को
शुक्र है रह गया पर्दा मिरी उर्यानी का
ख़ाक कूचे की तिरे बन गई चादर मुझ को
चुप रहूँ मैं तो ख़मोशी भी गिला हो जाए
आप जो चाहें वो कह दें मिरे मुँह पर मुझ को
ख़ाक छाना किए हम क़ाफ़िले वालों के लिए
क़ाफ़िले वालों ने देखा भी न मुड़ कर मुझ को
आप ज़ालिम नहीं, ज़ालिम है मगर आप की याद
वही कम-बख़्त सताती है बराबर मुझ को
इन्क़िलाबात ने कुछ ऐसा परेशान किया
कि सुझाई नहीं देता है तिरा दर मुझ को
जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन
पाँव फैलाने नहीं देती है चादर मुझ को
मिल गई तिश्नगी-ए-शौक़ से फ़ुर्सत ता-उम्र
अपने हाथों से दिया आप ने साग़र मुझ को
अब मिरा जज़्बा-ए-तौफ़ीक़ है और मैं 'बिस्मिल'
ख़िज़्र गुम हो गए रस्ते पे लगा कर मुझ को
ग़ज़ल
सोचने का भी नहीं वक़्त मयस्सर मुझ को
बिस्मिल अज़ीमाबादी