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सितम का तीर जो है वो तिरी कमान में है | शाही शायरी
sitam ka tir jo hai wo teri kaman mein hai

ग़ज़ल

सितम का तीर जो है वो तिरी कमान में है

नज़ीर मेरठी

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सितम का तीर जो है वो तिरी कमान में है
जो कह चुका हूँ मैं वो ही मिरे बयान में है

मैं ख़ाली जिस्म ही घर से निकल के आया हूँ
मिरी जो जान है अब भी उसी मकान में है

इसी लिए तो सभी हम पे हो गए हावी
ये फूट आपसी जो अपने ख़ानदान में है

मिरी तरफ़ जो ये देखे तो इस से बात करूँ
ये मेरा दोस्त मगर जाने किस के ध्यान में है

अगर मैं चाहूँ हरीफ़ों पे चोट भी कर दूँ
सुख़न का तीर इक ऐसा मिरी कमान में है

ग़ुरूर-ए-जिस्म पे और जान पे अरे तौबा
न जाने मिट्टी का पुतला ये किस गुमान में है

मकाँ पे जा के ज़रा इस के ठाट देख 'नज़ीर'
गदा भी आज का ये कितनी आन-बान में है