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सिसकता चीख़ता एहसास था मिरे अंदर | शाही शायरी
sisakta chiKHta ehsas tha mere andar

ग़ज़ल

सिसकता चीख़ता एहसास था मिरे अंदर

अलीम सबा नवेदी

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सिसकता चीख़ता एहसास था मिरे अंदर
कभी तो झाँक के वो देखता मिरे अंदर

किसी के लम्स की ख़्वाहिश न फ़ासलों की कसक
ये कैसा ज़हर उछाला गया मिरे अंदर

वो एक शख़्स जिसे ढूँडना भी मुश्किल था
बड़े ख़ुलूस से रहने लगा मिरे अंदर

लहू की सूखी हुई झील में उतर कर यूँ
तलाश किस को वो करता रहा मिरे अंदर

ये मेरा दिल भी सरापा मज़ार सा है 'सबा'
लगाओ कतबा किसी नाम का मिरे अंदर