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सिर्फ़ इक हद्द-ए-नज़र को आसमाँ समझा था मैं | शाही शायरी
sirf ek hadd-e-nazar ko aasman samjha tha main

ग़ज़ल

सिर्फ़ इक हद्द-ए-नज़र को आसमाँ समझा था मैं

चन्द्रभान ख़याल

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सिर्फ़ इक हद्द-ए-नज़र को आसमाँ समझा था मैं
आसमानों की हक़ीक़त को कहाँ समझा था मैं

ख़ुद मिला और मिल के वो अपना पता भी दे गया
जबकि सारी काविशों को राएगाँ समझा था मैं

ज़िंदगी का रंग पहचाना गया जीने के बा'द
दूर से उस रंग को उड़ता धुआँ समझा था मैं

मेहरबानों से हमेशा ही रहे शिकवे गले
और हर ना-मेहरबाँ को मेहरबाँ समझा था मैं

दे रहा था वो सदाएँ और मैं ख़ामोश था
कश्मकश की उस घड़ी को इम्तिहाँ समझा था मैं

हो गया हूँ क़त्ल बे-रहमी से उन के सामने
हैफ़ जिन लोगों को अपना पासबाँ समझा था मैं

पास से देखा तो जाना किस क़दर मग़्मूम हैं
अन-गिनत चेहरे कि जिन को शादमाँ समझा था मैं