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सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं | शाही शायरी
silsile KHwab ke ashkon se sanwarte kab hain

ग़ज़ल

सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं

फ़ारूक़ शमीम

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सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं
आज दरिया भी समुंदर में उतरते कब हैं

वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है
डूब जाते हैं जो लम्हात उभरते कब हैं

यूँ भी लगता है तिरी याद बहुत है लेकिन
ज़ख़्म ये दिल के तिरी याद से भरते कब हैं

लहर के सामने साहिल की हक़ीक़त क्या है
जिन को जीना है वो हालात से डरते कब हैं

ये अलग बात है लहजे में उदासी है 'शमीम'
वर्ना हम दर्द का इज़हार भी करते कब हैं