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सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी | शाही शायरी
silsila jumban ek tanha se ruh kisi tanha ki thi

ग़ज़ल

सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी

जौन एलिया

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सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी
एक आवाज़ अभी आई थी वो आवाज़ हवा की थी

बे-दुनियाई ने इस दिल की और भी दुनिया-दार किया
दिल पर ऐसी टूटी दुनिया तर्क ज़रा दुनिया की थी

अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी

अपने-आप से जब मैं गया हूँ तब की रिवायत सुनता हूँ
आ कर कितने दिन तक उस की याद मुझे पूछा की थी

हूँ सौदाई सौदाई सा जब से मैं ने जाना है
तय वो राह-ए-सर-ए-सौदाई मैं ने बे-सौदा की थी

गर्द थी बेगाना-गर्दी की जो थी निगह मेरी ताहम
जब भी कोई सूरत बिछड़ी आँखों में नम-नाकी थी

है ये क़िस्सा कितना अच्छा पर मैं अच्छा समझूँ तो
एक था कोई जिस ने यक-दम ये दुनिया पैदा की थी