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सीने का बोझ अश्कों में ढलते हुए भी देख | शाही शायरी
sine ka bojh ashkon mein Dhalte hue bhi dekh

ग़ज़ल

सीने का बोझ अश्कों में ढलते हुए भी देख

मुमताज़ राशिद

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सीने का बोझ अश्कों में ढलते हुए भी देख
पत्थर को मौज-ए-ख़ूँ में पिघलते हुए भी देख

हाथों में अपने वक़्त की तलवार को सँभाल
फिर ज़ख़्म खा के मुझ को सँभलते हुए भी देख

आँखों के आईनों से हटा आँसुओं की बर्फ़
और मुझ को अपनी आग में जलते हुए भी देख

पहली नज़र में कर न किसी नक़्श पर यक़ीं
लोगों को अपनी शक्ल बदलते हुए भी देख

कब तक फिरेगा शहर में परछाइयों के साथ
सूरज को उस गली से निकलते हुए भी देख