शुक्र उस ने किया लब पे मगर नाम न आया
मरना भी मिरा हाए मिरे काम न आया
अल्लाह शब-ए-हिज्र फिर ऐसी न दिखाए
घड़ियों तो मुझे याद तिरा नाम न आया
ये तर्ज़-ए-जफ़ा किस सिखाई थी सितम-गर
सौ ज़ुल्म हुए एक भी इल्ज़ाम न आया
बुत-ख़ाना तो बुत-ख़ाना है अल्लाह-री क़िस्मत
काबा से भी 'माइल' कभी नाकाम न आया
ग़ज़ल
शुक्र उस ने किया लब पे मगर नाम न आया
मिर्ज़ा मायल देहलवी