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शोख़ी से कश्मकश नहीं अच्छी हिजाब की | शाही शायरी
shoKHi se kashmakash nahin achchhi hijab ki

ग़ज़ल

शोख़ी से कश्मकश नहीं अच्छी हिजाब की

अज़ीज़ हैदराबादी

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शोख़ी से कश्मकश नहीं अच्छी हिजाब की
खुल जाएगी गिरह तिरे बंद-ए-नक़ाब की

शीशे खुले नहीं अभी साग़र चले नहीं
उड़ने लगी परी की तरह बू शराब की

दो दिन की ज़िंदगी पे इलाही ये ग़फ़लतें
आँखें तो हैं खुली हुई हालत है ख़्वाब की

होते ही सुब्ह-ए-वस्ल की शब देखता हूँ क्या
तलवार बन गई है किरन आफ़्ताब की

आता नहीं कसी पे दिल-ए-बद-गुमाँ 'अज़ीज़'
जमती नहीं कसी पे नज़र इंतिख़ाब की