शोअ'रा में न हो क्यूँ शे'र हमारा ऊँचा
कि क़द-ए-यार का मज़मून है बाँधा ऊँचा
नाज़ की नश्व-ओ-नुमा है कि है जोबन का उभार
वर्ना क्या है तिरे सीने पे ये ऊँचा ऊँचा
दिल मुसाफ़िर है सफ़र शब का फिर इस पर तुर्रा
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में है हर जगह नीचा ऊँचा
ऐ अदब ख़ार की ताज़ीम है नीचा रहना
हाँ कहीं हो न सर-ए-आबला-ए-पा ऊँचा
ज़ुल्फ़ है पस्त जो गेसू से तो ये काकुल से
चौ-गुने मर्तबा में इस से है तुर्रा ऊँचा
चश्म-ए-बद-दूर बुलंद अश्क है सर से इक हाथ
ग़ैर मुमकिन है ज़मीं से बहे दरिया ऊँचा
क्यूँ 'वक़ार' अपना गला पीर-ओ-जवाँ फाड़ते हैं
पीर-ए-कोहना है फ़लक हद से है सुनता ऊँचा
ग़ज़ल
शोअ'रा में न हो क्यूँ शे'र हमारा ऊँचा
किशन कुमार वक़ार

