शोलों से मोहब्बत की मिरी जाँ में लगी आग
फिर जाँ से भड़क जिस्म के मैदाँ में लगी आग
ये आतिश-ए-ग़म है कि दम-ए-सर्द से अपने
सर-चश्मा-ए-ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ में लगी आग
उस हूर के कूचे में भरे हम जो दम-ए-गर्म
मर्दुम ने कहा रौज़ा-ए-रिज़वाँ में लगी आग
ख़ंदाँ जो हुआ यार हमें देख के गिर्यां
लोगों ने कहा बर्क़ से बाराँ में लगी आग
इन रोज़ों में है रंग जो अश्कों का गुलाबी
शायद कि मिरे दीदा-ए-गिर्यां में लगी आग
गर्मी से नगर के तिरे गुन आब हुआ देख
बुलबुल ने पुकारा कि गुलिस्ताँ में लगी आग
नारी हैं जो परियाँ ये सबब है कि तुम्हारे
नूर-ए-रुख़-ए-रौशन से परिस्ताँ में लगी आग
उस आतिशीं-रू को ब-लब-ए-बाम जो देखा
आलम ने कहा गुम्बद-ए-गर्दां में लगी आग
दरिया में वो धोया था कभी दस्त-ए-हिनाई
हसरत से वहीं पंजा-ए-मर्जां में लगी आग
ग़ैरों की तरफ़ जो नज़र-ए-मेहर से देखा
ग़ैरत से मिरे सीना-ए-सोज़ाँ में लगी आग
क्यूँ कोहकन-ओ-क़ैस रहें मुझ से न नालाँ
नालों से मिरे कोह-ओ-बयाबाँ में लगी आग
वो सोख़्ता-दिल हूँ मैं पस-अज़-मर्ग जो गुज़रा
मरक़द से मिरे यार के दामाँ में लगी आग
'मातम' है किसी सोख़्ता-दिल का असर-ए-आह
बे-वज्ह नहीं कूचा-ए-जानाँ में लगी आग
ग़ज़ल
शोलों से मोहब्बत की मिरी जाँ में लगी आग
मातम फ़ज़ल मोहम्मद