शिकवे तिरे हुज़ूर किए जा रहा हूँ मैं
जो कुछ भी हो क़ुसूर किए जा रहा हूँ मैं
वहम-ए-तअय्युनात का अंजाम देखना
नज़दीकियों को दूर किए जा रहा हूँ मैं
महव-ए-तवाफ़ कूचा-ए-हस्ती में रहमतें
शायद कोई क़ुसूर किए जा रहा हूँ मैं
रक्खी हुई है संग-ए-दर-ए-यार पर जबीं
इस इज्ज़ पर ग़ुरूर किए जा रहा हूँ मैं
नज़्र-ए-निगाह-ए-नाज़ हैं दिल की नज़ाकतें
शीशे को चूर चूर किए जा रहा हूँ मैं
रब्त-ए-नियाज़-ओ-नाज़ का आलम तो देखना
नादिम हैं वो क़ुसूर किए जा रहा हूँ मैं
सोचा कभी न हज़रत-ए-वाइज़ ने ये 'शकील'
रिंदों में ज़िक्र-ए-हूर किए जा रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
शिकवे तिरे हुज़ूर किए जा रहा हूँ मैं
शकील बदायुनी