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शिकस्त खा के भी कब हौसले हैं कम मेरे | शाही शायरी
shikast kha ke bhi kab hausle hain kam mere

ग़ज़ल

शिकस्त खा के भी कब हौसले हैं कम मेरे

अफ़ज़ल गौहर राव

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शिकस्त खा के भी कब हौसले हैं कम मेरे
मिरे कटे हुए हाथों में हैं अलम मेरे

पनाह-गाह मुझे भी तो सौर जैसी दे
मिरी तलाश में दुश्मन हैं ताज़ा-दम मेरे

तुझे मैं कैसे बताऊँ कहाँ से कैसा हूँ
उलझ रहे हैं ब-दस्तूर पेच-ओ-ख़म मेरे

किस आसमान की वुसअत तलाश करते हुए
ज़मीं से दूर निकल आए हैं क़दम मेरे

तू ये सवाल भी अब दजला ओ फ़ुरात से पूछ
मैं क्या बताऊँ कहाँ लुट गए हरम मेरे

जमी रही है चटानों पे बर्फ़ सदियों तक
तो जा के फिर कहीं पत्थर हुए हैं नम मेरे