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शिकस्त-ए-रंग-ए-तमन्ना को अर्ज़-ए-हाल कहूँ | शाही शायरी
shikast-e-rang-e-tamanna ko arz-e-haal kahun

ग़ज़ल

शिकस्त-ए-रंग-ए-तमन्ना को अर्ज़-ए-हाल कहूँ

रविश सिद्दीक़ी

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शिकस्त-ए-रंग-ए-तमन्ना को अर्ज़-ए-हाल कहूँ
सुकूत-ए-लब को तक़ाज़ा-ए-सद-सवाल कहूँ

हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
किसे फ़िराक़ कहूँ और किसे विसाल कहूँ

मुझे यक़ीं है कि कुछ भी छुपा नहीं उन से
उन्हें ये ज़िद कि दिल-ए-मुब्तला का हाल कहूँ

तू बे-मिसाल सही फिर भी दिल को है इसरार
अदा अदा को तिरी आलम-ए-मिसाल कहूँ

मिज़ाज-ए-महफ़िल-ए-गीती अगर न बरहम हो
तो रंग-ए-ऐश को गर्द-ए-रुख़-ए-मलाल कहूँ

हवा के दोश पे है एक शोला-ए-लरज़ाँ
कहूँ तो क्या तिरी तहज़ीब का मआल कहूँ

वो एक ख़्वाब जो तामीर आप है अपनी
मैं क्या हक़ीक़त-ए-रानाई-ए-ख़याल कहूँ

ग़ज़ल की बात रहेगी वहीं अगर सौ बार
जवाब-ए-शोख़ी ओ रानाई-ए-ग़ज़ाल कहूँ

'रविश' ये सादगी-ए-इश्क़ का तक़ाज़ा है
कमाल-ए-होश को इख़्लास का ज़वाल कहूँ