शैख़-ए-हरम उस बुत का परस्तार हुआ है
बुत-ख़ाना-नशीं बाँध के ज़ुन्नार हुआ है
हर हर्फ़ पे दो आँसू टपक पड़ते हैं ऐ वाए
ख़त यार को लिखना हमें दुश्वार हुआ है
कोतह न समझ आह-ए-ज़ईफ़ान को ये तीर
सौ बार दिल-ए-अर्श से भी पार हुआ है
ऐ सैद-फ़गन ग़म से तिरे दूरी कि मेरा
हर ज़ख़्म-ए-दिल इक दीदा-ए-ख़ूँ-बार हुआ है
हस्ती तिरी पर्दा है उठा दे इसे ग़ाफ़िल
क्यूँ ऐसा हिजाब-ए-रुख़-ए-दिलदार हुआ है
आगे तिरे थी गर्म-ए-सुख़न होने की हसरत
सो भरना दम-ए-सर्द भी दुश्वार हुआ है
कर क़द्र तू 'रासिख़' की कि इस तरह का आज़ाद
यूँ दाम में आ तेरे गिरफ़्तार हुआ है
ग़ज़ल
शैख़-ए-हरम उस बुत का परस्तार हुआ है
रासिख़ अज़ीमाबादी