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शैख़-ए-हरम उस बुत का परस्तार हुआ है | शाही शायरी
shaiKH-e-haram us but ka parastar hua hai

ग़ज़ल

शैख़-ए-हरम उस बुत का परस्तार हुआ है

रासिख़ अज़ीमाबादी

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शैख़-ए-हरम उस बुत का परस्तार हुआ है
बुत-ख़ाना-नशीं बाँध के ज़ुन्नार हुआ है

हर हर्फ़ पे दो आँसू टपक पड़ते हैं ऐ वाए
ख़त यार को लिखना हमें दुश्वार हुआ है

कोतह न समझ आह-ए-ज़ईफ़ान को ये तीर
सौ बार दिल-ए-अर्श से भी पार हुआ है

ऐ सैद-फ़गन ग़म से तिरे दूरी कि मेरा
हर ज़ख़्म-ए-दिल इक दीदा-ए-ख़ूँ-बार हुआ है

हस्ती तिरी पर्दा है उठा दे इसे ग़ाफ़िल
क्यूँ ऐसा हिजाब-ए-रुख़-ए-दिलदार हुआ है

आगे तिरे थी गर्म-ए-सुख़न होने की हसरत
सो भरना दम-ए-सर्द भी दुश्वार हुआ है

कर क़द्र तू 'रासिख़' की कि इस तरह का आज़ाद
यूँ दाम में आ तेरे गिरफ़्तार हुआ है