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शहर-ए-तरब में आज अजब हादिसा हुआ | शाही शायरी
shahr-e-tarab mein aaj ajab hadisa hua

ग़ज़ल

शहर-ए-तरब में आज अजब हादिसा हुआ

हामिद सरोश

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शहर-ए-तरब में आज अजब हादिसा हुआ
हँसते में उस की आँख से आँसू छलक पड़ा

हैरान हो के सोच रहा था कि क्या कहूँ
इक शख़्स मुझ से मेरा पता पूछने लगा

हाला नहीं है आतिश-ए-फ़ुर्क़त की आँच है
तारा न था तो चाँद का पहलू सुलग उठा

अब याद भी नहीं कि शिकायत थी उन से क्या
बस इक ख़याल ज़ेहन के गोशे में रह गया

कितने ही तारे टूट के दामन में आ गिरे
जब चौदहवीं का चाँद घटाओं में जा छुपा

बाद-ए-ख़िज़ाँ चमन से शबिस्ताँ तक आ गई
तकिए का सुर्ख़ फूल भी मुरझा के रह गया

सोचा था उस से दूर कहीं जा बसेंगे हम
लेकिन 'सरोश' हम से पेशावर न छुट सका