शहर-ए-जुनूँ में कल तलक जो भी था सब बदल गया
मरने की ख़ू नहीं रही जीने का ढब बदल गया
पल में हवा मिटा गई सारे नुक़ूश नूर के
देखा ज़रा सी देर में मंज़र-ए-शब बदल गया
मेरी पुरानी अर्ज़ पर ग़ौर किया न जाएगा
यूँ है कि उस की बज़्म में तर्ज़-ए-तलब बदल गया
साअत-ए-ख़ूब वस्ल की आनी थी आ नहीं सकी
वो भी तो वो नहीं रहा मैं भी तो अब बदल गया
दूरी की दास्तान में ये भी कहीं पे दर्ज हो
तिश्ना-लबी तो है वही चश्मा-ए-लब बदल गया
मेरे सिवा हर एक से दुनिया ये पूछती रही
मुझ सा जो एक शख़्स था पत्थर में कब बदल गया
ग़ज़ल
शहर-ए-जुनूँ में कल तलक जो भी था सब बदल गया
शहरयार