EN اردو
शहर में रंग है न ख़ुश्बू है | शाही शायरी
shahar mein rang hai na KHushbu hai

ग़ज़ल

शहर में रंग है न ख़ुश्बू है

क़य्यूम नज़र

;

शहर में रंग है न ख़ुश्बू है
फिर भी चर्चा उसी का हर-सू है

बह रहा है मुहीब सन्नाटा
पा-ब-गिल सब्ज़ा-ए-लब-ए-जू है

घुप अँधेरे का जल रहा है चराग़
रौशनी का अजीब जादू है

बे-दिली है नसीब-ए-दाम-ए-ख़्याल
आरज़ू इक रमीदा आहू है

सीना-ए-संग पर ठिठुरता हुआ
शाख़-ए-गुल का गुदाज़ पहलू है

शिद्दत-ए-कर्ब से निढाल नहीं
आँख में जम गया जो आँसू है

एक ज़र्रा नहीं जो मिल जाए
और बपा महशर-ए-तगापू है

दर्द ने बढ़ के आश्कार किया
मौत पर ज़िंदगी का क़ाबू है

मुझ को देखें 'नज़र' जो कहते हैं
आदमी, आदमी का दारू है