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शब-ए-सियाह से निकलेगा माहताब कोई | शाही शायरी
shab-e-siyah se niklega mahtab koi

ग़ज़ल

शब-ए-सियाह से निकलेगा माहताब कोई

ख़लील मामून

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शब-ए-सियाह से निकलेगा माहताब कोई
उफ़ुक़ में देखते रहिएगा रोज़ ख़्वाब कोई

जवाब ढूँड के सारे जहाँ से जब लौटे
हमें तो कर गया यक-लख़्त ला-जवाब कोई

चमन से निकले हैं इक फूल तोड़ कर हम भी
लहूलुहान से हाथों में है गुलाब कोई

मिलें तो कैसे मिलें जाएँ तो कहाँ जाएँ
कि कर रहा है बहुत हम से इज्तिनाब कोई

बिखेरते हुए सोना ज़मीं में चारों तरफ़
उभर रहा है समुंदर से आफ़्ताब कोई

'मामून' चारों तरफ़ मेरे अब अंधेरा है
उभर के डूब गया मुझ में आफ़्ताब कोई