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सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द | शाही शायरी
sard ho jati hai fikr-e-jah-e-duniya jis ke baad

ग़ज़ल

सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द

नातिक़ गुलावठी

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सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द
वो ज़रा सा है ख़याल ऐ दिल कि फिर क्या इस के बअ'द

दिल ब-मुश्किल आस्तान-ए-बुत के सज्दों से फिरा
सर उठाया तो सही लेकिन बड़ी घिस घिस के बअ'द

बे-ख़ुदी आई थी उन के बअ'द बज़्म-ए-नाज़ में
फिर नहीं मालूम हम को कौन आया किस के बअ'द

ख़ून-ए-दिल ही पर मसाइब काश हो जाते तमाम
देखना ये है कि होना और क्या है इस के बअ'द

ख़ुद को पहचाने तो इंसाँ क्यूँ रहे पाबंद-ए-ग़ैर
ये कमाल-ए-बे-हयाई है ज़वाल-ए-हिस के बअ'द

कोई जाता है तो जाए किस को पर्वा है यहाँ
बज़्म-ए-आलम ये कहो सूनी हुई है किस के बअ'द

खो दिया शोहरत ने अपनी शेर-ख़्वानी का मज़ा
दाद मिल जाती है 'नातिक़' हर रतब-याबिस के बअ'द